वो रेल की पटरी,
ना हरी घास थी, ना ही बिस्तर की तलाश थी
रगड़ें खाकर थक गईं कुछ लातें थीं
अपने ही
कम्फर्ट जोन से बेख़बर
बस थोड़ी चैन की नींद थी।
ना सत्ता को होश था
ना विपक्ष को,
ना राज्य को कुछ पता था
ना भीतर पलते सिस्टम को
फिर किसका था दोष?
क्या बिखरी हुई रोटी का
या बिखरे हुए 100 के नोट का... !!
Amazing brother
ReplyDelete