मौत से बेख़बर ज़िन्दगी का सफर,शाम हर सुरमई रात बंसी का स्वर.....

अटल बिहारी वाजपेयी की कविता "मौत से ठन गई" उनके कवि होने का बेहतरीन उदाहरण पेश करती है. मैंने इस कविता को तकरीबन चार साल पहले पढ़ा था. उस समय अटल जी की किताब इक्यावन 'कविताओं का काव्य संग्रह' पुस्तक मेले से मंगवाया था. इस कविता को पढ़ कर ऐसा लगता है जैसे कोई मनुष्य मौत से जूझता हुआ अपने भीतर के भावों को सरल शब्दों के द्वारा कविता के रूप में पेश कर रहा हो. काविय्क दृष्टि से कविता भले ही हल्की दिखाई पड़ती है. पर भावों और जज़्बातों के आधार पर मानवतावादी कविता होने का दर्जा रखती है. कविता के कुछ अंश इस प्रकार हैं---
मौत से बेख़बर ज़िन्दगी का सफर,
शाम हर सुरमई रात बंसी का स्वर
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने पराये कुछ कम भी नही,
प्यार परायों से मुझको इतना मिला,
ना अपनो से बाकी है कोई गिला,
हर चुनौती से दो हाथ किए मैंने,
आँधियों में जलाए हैं बुझते दिए,
आज झकझोरता मगर तेज तूफान है,
नाव भँवरों की बाहों में मेहमान है,
पार पाने का कायम मगर हौसला -
देख तुफांं का तेवर तरी तन गई,
मौत से ठन गई, मौत से ठन गई।

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