"नौ हज़ार का गुलाम"

कई दिनो से 'राकेश', स्वयं को स्थिर करता हुआ अस्थिर सा होने लगा था। कॉर्पोरेट जिंदगी में रहकर उसके ख्याल बीमार हो चले थे। उसके आसपास ऐसे बिमारु लोग काम करते थे जो अपनी कामकाजी ज़िन्दगी का कुछ हिस्सा सिगरेट के धुएँ में उड़ाते थे, उनकी बातों में उस धुएँ से ज़्यादा, कार्पोरेट की बातों का कचरा था, जिसे वह बड़ी मशगूलियत के साथ हवा में उड़ाते थे। सिगरेट-बीड़ी वाले 'मुरारी' का धंधा भी खु़ब चलता था, क्यों जो कंपनी के मालिक भी अपनी शाम का हिस्सा बचाकर उसके यहां चले आते थे।
            'मुरारी' का धंधा मंदा ना चले इस के लिए  उसने सिगरेट ना पीने वालों के लिए चाय, मैगी, मठ्ठी, बिस्किट आदि का भी इंतजाम भी कर रखा था। ये चाय पीने वाले ऐसे कर्मचारी थे जो चाय की चुस्की के साथ कार्पोरेट की मस्की लेते थे, और मठ्ठी खा कर बातों को हज़म करते थे। 'राकेश' उबास मारती इस तथाकथित कार्पोरेट जिंदगी से तंग आ चुका था। पर वह क्या करता, हर कार्पोरेट कंपनी के बाहर बैठा 'मुरारी' उस कंपनी की शौभा बढ़ाता दिखाई पड़ता। इसीलिए उसने कार्पोरेट को धन्यवाद किया और इसी कार्पोरेट में ही सिमटने का फैसला किया। घर की खाली थाली को भरता हुआ वह खुद खाली हो गया, ना जाने नौ हजार पाने वाला कब उसका गुलाम हो गया।

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